दो बहनें
मान लीजिए शशांक दोस्तों के घर दावत खाने गया है। रात के ग्यारह बज गए या दोपहर हो आई। ब्रिज के दाँव चल रहे हैं। अचानक मित्रलोग हँस पड़े: 'उठो दोस्त, वह समन लेकर प्यादा आ गया, अब ज्यादा नहीं रुक सकते।
वही चिर-परिचित नौकर महेश है। मूछों के बाल पक गए हैं, सिर के बाल कच्चे ही हैं, पहनावे में मिरजई है, कंधे पर चारख़ाने का गमछा, और बगल में बाँस की लाठी। माईजी ने पुछवाया है कि बाबू यहाँ हैं या नहीं। माईजी को डर है कि कहीं लौटते समय अँधेरी रात में कुछ दुर्घटना न घट बैठे। साथ में एक लालटेन भी दी है।
शशांक कुड़मुड़ाकर ताश फेंककर उठ खड़ा होता। दोस्त फ़िक़रा कसते-'आहा, बेचारा अकेला बेहिफ़ाज़त मर्द जो ठहरा!' घर आकर शशांक स्त्री के साथ जो वार्तालाप शुरू करता वह न तो स्निग्ध भाषा में होता, न शान्त शैली में। शर्मिला चुपचाप सारी फटकार सुन लेती। क्या करे, ख़ामोश रहते भी तो नहीं बनता। अपने मन से वह इस आशंका को एकदम दूर भी नहीं कर सकती कि उसकी अनुपस्थिति में सब तरह की असम्भव विपत्तियाँ उसके पति के विरुद्ध षड़यंत्र रचती रहती हैं।
बाहर कोई आया है, शायद किसी काम से। इधर छिन-छिन में अन्तःपुर से काग़ज़ के चिरकुट आ रहे हैं, 'याद है न, कल तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं थी, आज सबेरे-सबेरे खा लो।' शशांक ग़ुस्सा करता है और फिर हार भी मानता है। बड़े दुःख के साथ एक बार स्त्री से कहा था, 'दुहाई है, चक्रवर्ती परिवार की गृहिणी की तरह किसी ठाकुर देवता का सहारा लो। तुम्हारी इतनी फ़िकिरमंदी मुझ अकेले के लिये बहुत अधिक है। देवता के साथ साझा रहने से वह सहज हो जायगी। चाहे जितनी भी ज़्यादती करो, देवता को कोई एतराज़ नहीं होगा लेकिन मनुष्य तो कमज़ोर जीव है।'